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के उसी अगले भाग पर वे आ गई हैं, जहाँ कि सूत्रधार ने प्रस्तावना की है। इस के बाद अपटीक्षेप होता है अर्थात् पर्दा उठता है, तब पुरूरुवा का प्रवेश होता है और सामने हेमकूट का भी दृश्य दिखाई पड़ता है। इसलिए कुछ विशेष ढंग के परदे का नाम अपटी जान पड़ता है। संभवतः अपटीक्षेप उन स्थानों पर किया जाता था जहाँ सहसा पात्र उपस्थित होता था। उसी अंक में अन्य पात्रों के द्वारा कथावस्तु के अन्य विभाग का अभिनय करने में अपटीक्षेप का प्रयोग होता था। यह निश्चय है कि कालिदास और शूद्रक इत्यादि प्राचीन नाटककार रंगमंच के पटीक्षेप से परिचित थे और दृश्यांतर (ट्रांस्फर सीन) उपस्थित करने में उन का प्रयोग भी करते थे। यद्यपि वे प्राचीन रंगमंच अधुनिक ढंग से पूर्ण रूप से विकसित नहीं थे, फिर भी रंगमंचों के अनुकूल कक्ष्या-विभाग और उन में दृश्यों के लिए शैल, विमान और यान तथा कृत्रिम प्रासाद-यंत्र और पटों का उपयोग होता था।

नाट्यमंदिर में नर्त्तकियों का विशेष प्रबंध रहता था। जान पड़ता है कि रेचक, अंगहार, करण और चारियों के साथ पिंडीबंध अथवा सामूहिक नृत्य का भी आयोजन रंगमंच में होता था। अति प्राचीन काल में भारतवर्ष के रंगमंच में स्त्रियाँ नाटकों को सफल बनाने के लिए आवश्यक समझी गईं। केवल पुरुषों के द्वारा अभिनय असफल होने लगे, तब रंगोपजीवना अप्सराएँ रंगमंच पर आईं। कहा गया है―