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द्रव्यों का उपयोग अर्थात् शैल, यान और विमान आदि का प्रदर्शन और ललित अंगहार जिसमें प्रयुक्त होते थे―रंगमंच के ऐसे नाटकों को नाट्यधर्मी कहते थे। स्वगत, आकाश-भाषित इत्यादि तब भी अस्वाभाविक माना जाता था, और इन का प्रयोग नाट्यधर्मी अभिनय में ही रंगमंच पर किया जाता था।

आसन्नोक्तं च यद वाक्यम् न शृण्वंति परस्परम्
अनुक्तं श्रूयते वाक्यम् नाट्यधर्मी तु सास्मृता!

प्राचीन रंगमंच में स्वगत की योजना जिस में कि समीप का उपस्थित व्यक्ति सुनी बात को अनसुनी कर जाता है, नाट्यधर्मी अभिनय के ही अनुकूल होता था; और 'भाण' में आकाश-भाषित का प्रयोग भी नाट्यधर्मी के ही अनुकूल है। व्यंजना-प्रधान अभिनय का भी विकास प्राचीन रंगमंच पर हो गया था। भावपूर्ण अभिनयों में पर्याप्त उन्नति हो चुकी थी। नाट्यशास्त्र के २६वें अध्याय में इस का विस्तृत वर्णन है। पक्षियों का रेचक से, सिंह आदि पशुओं का गति-प्रचार से, भूत-पिशाच और राक्षसों का अंगहार से अभिनय किया जाता था। इस भावाभिनय का पूर्ण स्वरूप अभी भी दक्षिण के कथकलि नृत्य में वर्तमान है।

रंगमंच में नटों के गति-प्रचार (मूवमेंट), वस्तु-निवेदन (डिलीवरी), संभाषण (स्पीच) इत्यादि पर भी अधिक सूक्ष्मता से ध्यान दिया जाता था। और इन पर नाट्यशास्त्र में अलग-अलग अध्याय ही लिखे गये हैं। रंगमंच पर जिस कथा