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का अवतरण किया जाता था, उस का विभाग भी समय के अनुसार और अभिनय की सुव्यवस्था का ध्यान रखते हुए किया जाता था।

ज्ञात्वा दिवसांस्तान्क्षणयाममुहूर्त्तलक्षणोपेतान्।
विभजेत् सर्वमशेषम् पृथक् पृथक् काव्यमंकेषु॥

प्रायः एक दिन का कार्य एक अंक में पूरा हो जाना चाहिए और यदि न हो सके तो प्रवेशक और अंकावतार के द्वारा उस की पूर्ति होनी चाहिए। एक वर्ष से अधिक का समय तो एक अंक में आना नहीं चाहिए। प्रवेशक, अंकावतार और अपटीक्षेप का प्रयोग आज कल की तरह दृश्य या स्थान को प्रधानता दे कर नहीं किया जाता था; किंतु वे कथावस्तु के विभाजन-स्वरूप ही होते थे। पाँच अंक के नाटक रंगमंच के अनुकूल इस लिए माने जाते थे कि उन में कथावस्तु की पाँचों संधियों का क्रम-विकास होता था। और कभी-कभी हीन-संधि नाटक भी रंगमंच पर अभिनीत होते थे, यद्यपि वे नियम विरुद्ध माने जाते थे। दूसरी, तीसरी, चौथी संधियों का अर्थात् बिंदु, पताका और प्रकरी का तो लोप हो सकता था, किंतु पहली और पाँचवी संधि का अर्थात् बीज और कार्य का रहना आवश्यक माना गया है। आरंभ और फलयोग का प्रदर्शन रंगमंच पर आवश्यक माना गया है।

रंगमंच की बाध्य-बाधकता का जब हम विचार करते हैं तो उस के इतिहास से यह प्रकट होता है कि काव्यों के अनुसार