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अति भी प्रसिद्ध है जिसमें कवि और मनीषी (अर्थात् आध्यामिक) समानार्थी कहे गए हैं। किन्तु जहाँ मान्यता की बात आती है वहाँ आध्यात्मिक क्षेत्रों में इसको अर्थवाद ही मानते हैं सिद्धान्त रूप में स्वीकार नहीं करते। किन्तु प्रसादजी इसे सिद्धान्त रूप में प्रतिपादित करते हैं। उनका कथन है कि पश्चिमी विचार प्रणाली के अनुसार जहाँ मूर्त और अमूर्त का आध्यात्मिक भेद प्रचलित है काव्य को, मूर्त होने के कारण, आध्यात्मिक सीमा से, जिसमें अमूर्त के लिये ही स्थान है, अलग करने की चेष्टा भले ही की गई हो, किन्तु भारतीय विचारधारा में ब्रह्म मूर्त भी है और अमूर्त भी। अतः मूर्त होने के कारण काव्य को अध्यात्म से निम्न श्रेणी की वस्तु नहीं कह सकते।

यहीं प्रसादजी ने काव्य की मार्मिक व्याख्या की है―'काव्य आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति है, जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है'। आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति की दो धाराएँ हैं―एक काव्यधारा और दूसरी वैज्ञानिक, शास्त्रीय या दार्शनिक धारा। समझ रखना चाहिये कि इन दोनों में कोई मौलिक अन्तर नहीं है दोनों ही आत्मा के अखंड संकल्पात्मक स्वरूप के दो पहलू-मात्र हैं। कुछ लोग श्रेय और प्रेय भेद से विज्ञान और काव्य का विभाजन करते हैं किन्तु प्रसादजी का स्पष्ट मत है कि यद्यपि विज्ञान या दर्शन में श्रेय रूप से ही सत्य का संकलन किया जाता है और काव्य में प्रेय रूप की प्रधानता है, किन्तु श्रेय और प्रेय दोनों ही आत्मा के अभिन्न अंग हैं। काव्य