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मानव-संबंधी अभिनय होते थे। मेरा निश्चित विचार है कि भाँड़ो की परिहास की अधिकता संस्कृत भाण मुकुन्दानंद और रससदन आदि की परंपरा में है, और नाटकी था नौटंकी प्राचीन रागकाव्य के अथवा गीति-नाट्य की स्मृतियाँ हैं। रामलीला पाठ्य-काव्य रामायण के आधार पर वैसी ही होती है जैसे प्राचीन महाभारत और वाल्मीकि के पाठ्य-काव्यों के साथ अभिनय होता था। दक्खिन में अब भी कथकलि अभिनय उस प्रथा को सजीव किये है। प्रवृत्ति वही पुरानी है। परन्तु उत्तरीय भारत में बाह्म प्रभाव की अधिकता के कारण इन में परिवर्तन हो गया है और अभिनय की वह बात नहीं रही। हाँ, एक बात अवश्य इन लोगों ने की है और वह है चलते-फिरते रङ्गमंचों की या विमानों की रक्षा।

वर्तमान रङ्गमंच अन्य प्रभावों से अछूता न रह सका, क्योंकि विप्लव और आतंक के कारण प्राचीन विशेषताएँ नष्ट हो चुकी थीं। मुगल दरबारों में जो थोड़ी सी संगीत-पद्धति तानसेन की परम्परा में बच रही थी, उस में भी बाह्य प्रभाव का मिश्रण होने लगा था। अभिनयों में केवल भाण ही मुग़ल दरबार में स्वीकृत हुआ था; वह भी केवल मनोरंजन के लिए।

पारसी व्यवसायियों ने पहले-पहल नये रङ्गमंच की आयोजना की। भाषा मिश्रित थी―इंद्र-सभा, चित्रा-बकावली, चंद्रावली और हरिश्चंद्र आदि अभिनय होते थे, अनुकरण था रङ्गमंच में शेक्सपीरियन स्टेज का। क्योंकि वहाँ भी विक्टोरियन युग की प्रेरणा ने