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रङ्गमंच में विशेष परिवर्तन कर लिया था। १९वीं शताब्दी के मध्य में कीन की सहायता से अंग्रेज़ी रङ्गमंच में पुरावृत्त की खोजों के आधार पर, शेक्सपियर के नाटकों के अभिनय की नई योजना हुई, और तभी हेनरी इर्विंग सदृश चतुर नट भी आए। किन्तु साथ ही सूक्ष्म तथा गंभीर प्रभाव डालने वाली इब्सन की प्रेरणा भी पश्चिम में स्थान बना रही थी, जो नाटकीय यथार्थवाद का मूल है।

भारतीय रङ्गमंच पर इस पिछली धारा का प्रभाव पहले-पहल बंगाल पर हुआ। किंतु इन दोनों प्रभावों के बीच में दक्षिण में भारतीय रंगमंच निजी स्वरूप में अपना अस्तित्व रख सका। कथकलि नृत्य मंदिरों की विशाल संख्याओं में मर नहीं गया था। भावाभिनय अभी होते रहते थे। कदाचित् संस्कृत नाटकों का अभिनय भी चल रहा था, बहुत दबे-दबे। आंध्र ने आचार्यों के द्वारा जिस धार्मिक संस्कृति का पुनरावर्तन किया था, उस के परिणाम में संस्कृत साहित्य का भी पुनरुद्धार और तत्संबंधी साहित्य और कला की भी पुनरावृत्ति हुई थी। संस्कृत के नाटकों का अभिनय भी उसी का फल था। दक्षिण में वे सब कलाएं सजीव थीं; उन का उपयोग भी हो रहा था। हाँ, वाली और जावा इत्यादि के मंदिरों में इसी प्रकार के अभिनय अधिक सजीवता से सुरक्षित थे। ३० बरस पहले जब काशी में पारसी रंगमंच की प्रबलता थी, तब भी मैंने किसी दक्षिणी नाटक-मंडली द्वारा संस्कृत मृच्छकटिक