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सर्वोत्तम है―अनुसरण करना चाहिए, तो हमारी दृष्टिकोण भ्रमपूर्ण हो जाता है। अतीत और वर्तमान को देख कर भविष्य का निर्माण होता है। इसलिए हम को साहित्य में एकांगी लक्ष्य नहीं रखना चाहिए। जिस तरह हम स्वाभाविक या प्राचीन शब्दों में लोकधर्मी अभिनय की आवश्यकता समझते हैं, ठीक उसी प्रकार से नाट्यधर्मी अभिनय की भी; देश, काल, पात्र के अनुसार रंगमंच में संगृहीत रहना चाहिए। पश्चिम ने भी अपना सब कुछ छोड़ कर नये को नहीं पाया है।

श्री भारतेंदु ने रंगमंच की अव्यवस्थाओं को देख कर जिस हिंदी रंगमंच की स्वतंत्र स्थापना की थी, उस में इन सब का समन्वय था। उस पर सत्य-हरिश्चंद्र, मुद्राराक्षस, नीलदेवी, चंद्रावली, भारत-दुर्दशा, प्रेमयोगिनी सब का सहयोग था। हिंदी रंगमंच की इस स्वतंत्र चेतनता को सजीव रख कर रंगमंच की रक्षा करनी चाहिए। केवल नई पश्चिमी प्रेरणाएँ हमारी पथ-प्रदर्शिका न बन जाएँ। हाँ, उन सब साधनों से जो वर्तमान विज्ञान द्वारा उपलब्ध हैं, हम को वंचित भी न होना चाहिए।

आलोचकों का कहना है कि "वर्तमान युग की रंगमंच की प्रकृति के अनुसार भाषा सरल हो और वास्तविकता भी हो।" वास्तविकता का प्रच्छन्न अर्थ इब्सेनिज़्म के आधार पर कुछ और भी है। वे छिप कर कहते हैं, हम को अपराधियों से घृणा नहीं, सहानुभूति रखनी चाहिए। इस का उपयोग चरित्र-चित्रण