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कुछ देहाती पात्रों से उन की अपनी भाषा का प्रयोग कराया जाता है। मध्यकालीन भारत में जिस प्राकृत का संस्कृत से सम्मेलन रंगमंच पर कराया गया था वह बहुत कुछ परिमार्जित और कृत्रिम-सी थी। सीता इत्यादि भी संस्कृत बोलने में असमर्थ समझी जाती थीं! वर्तमान युग की भाषा-संबंधी प्रेरणा भी कुछ कुछ वैसी ही है। किंतु आज यदि कोई मुग़ल-कालीन नाटक में लखनवी उर्दू मुग़लों से बुलवाता है तो वह भी स्वाभाविक या वास्तविक नहीं है। फिर राजपूतों की राजस्थानी भाषा भी आनी चाहिए। यदि अन्य असभ्य पात्र हैं तो उन की जंगली भाषा भी रहनी चाहिए। और इतने पर भी क्या वह नाटक हिंदी का ही रह जायगा? यह विपत्ति कदाचित् हिंदी नाटकों के लिए ही है।

मैं तो कहूँगा कि सरलता और क्लिष्टता पात्रों के भावों और विचारों के अनुसार भाषा में होगी ही और पात्रों के भावों और विचारों के ही आधार पर भाषा का प्रयोग नाटकों में होना चाहिए। किंतु इस के लिए भाषा की एकतंत्रता नष्ट कर के कई तरह की खिचड़ी भाषाओं का प्रयोग हिंदी नाटकों के लिए ठीक नहीं। पात्रों की संस्कृति के अनुसार उन के भावों और विचारों में तारतम्य होना भाषाओं के परिवर्तन से अधिक उपयुक्त होगा। देश और काल के अनुसार भी सांस्कृतिक दृष्टि से भाषा में पूर्ण अभिव्यक्ति होनी चाहिए।

रंगमंच के संबंध में यह भारी भ्रम है कि नाटक रंगमंच के