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के प्रेय में परोक्ष रूप से श्रेय निहित है। काव्य की व्याख्या में उन्होंने कहा है कि काव्य को संकल्पात्मक मूल अनुभूति कहने से मेरा जो तात्पर्य है उसे भी समझ लेना होगा। आत्मा की मननशक्ति की वह असाधारण अवस्था जो श्रेय सत्य को उसके मूल चारुत्व में सहसा ग्रहण कर लेती है, काव्य में संकल्पात्मक मूल अनुभूति कही जा सकती है।'

इस प्रकार मूर्त और अमूर्त की द्विविधा हटा कर प्रसादजी ने श्रेय और प्रेय के झगड़े को भी साफ कर दिया है। इसका यह आशय नहीं कि वे काव्य और शास्त्र में कोई अंतर नहीं मानते। उन्होंने न केवल इनका व्यावहारिक अंतर माना है, प्राचीन भारत की शिक्षा पद्धति का भी विवरण दिया है जिसमें इन दोनों विषयों की शिक्षा पृथक्-पृथक् दो केन्द्रों में दी जाती थी। शास्त्रीय व्यापार के संबंध में प्रसाद जी स्वयं कहते हैं 'मन संकल्प और विकल्पात्मक है। विकल्प विचार की परीक्षा करता है। तर्क-वितर्क कर लेने पर भी किसी संकल्पात्मक प्रेरणा के ही द्वारा जो सिद्धान्त बनता है वही शास्त्रीय व्यापार है। अनुभूतियों की परीक्षा करने के कारण और इसके द्वारा विश्लेषणात्मक होते-होते उसमें चारुत्व की, प्रेय की, कमी हो जाती है।

किन्तु काव्य को आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति मान लेने और संकल्पात्मक अनुभूति की उपर्युक्त व्याख्या कर देने भर से समस्या का समाधान नहीं होता बल्कि यहीं से शंकाएँ आरंभ होती हैं। सब से पहली शंका प्रसाद जी ने स्वयं उठाई है और