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नाट्य से अतिरिक्त जो काव्य है उसे रीति ग्रन्थों में श्रव्य कहते हैं। कारण कि प्राचीन काल में ये सब सुने या सुनाये जाते थे; इसलिए श्रुति, अनुश्रुति इत्यादि शब्द धर्म-ग्रन्थों के लिए भी व्यवहृत थे। किन्तु आज कल तो छपाई की सुविधा के कारण उन्हें पाठ्य कहना अधिक सुसंगत होगा। वर्णनात्मक होने के कारण वे काव्य जो अभिनय के योग्य नहीं, पाठ्य ही हैं।

प्लेटो के अनुसार काव्य वर्णनात्मक और अभिनयात्मक दोनों ही है। जहाँ कवि स्वयं अपने शब्दों में वर्णन करता है वहां वर्णनात्मक और जहाँ कथोपकथन उपन्यस्त करता है, वहां अभिनयात्मक। ठीक इसी तरह का एक और पश्चिमी सिद्धान्त है, जो कहता है कि नाटक संगीतात्मक महाकाव्य है। परन्तु पाठ्य विभेद नाट्य काव्य के भीतर तो वर्तमान रहता है; हाँ नाट्य भेद का वर्णनात्मक में अभाव है। पाठ्य में एक द्रष्टा की वस्तु की बाह्यवर्णना की प्रधानता है; यद्यपि वह भी अनुभूति से संबद्ध ही है। यह कहा जा सकता है कि यह परोक्ष अनुभूति है, नाट्य की तरह अपरोक्ष अनुभूति नहीं। जहाँ कवि अपरोक्ष अनुभूतिमय (Subjective) हो जाता है, वहां यह वर्णनात्मक अनुभूति रस की कोटि तक पहुँच जाती है। यह आत्मा की अनुभूति