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विशुद्ध रूप में 'अहम्' की अभिव्यक्ति का कारण बन जाती है। साधारणतः सिद्धान्त में यह रहस्यवाद का ही अंश है।

इसी तरह बाह्य वर्णनात्मक अर्थात् 'इदं' का परामर्श भी आत्मा के विस्तार की ही आलोचना और अनुभूति है, जीवन की विभिन्न परिस्थितियों को समझने की क्रिया है, 'इदं' को 'अहम्' के समीप लाने का उपाय है। वर्णनों से भरे हुए महाकाव्य में जीवन और उस के विस्तारों का प्रभावशाली वर्णन आता है। उस के सुख-दुःख, हर्ष-क्रोध, राग-द्वेष का वैचित्र्यपूर्ण आलेख्य मिलता है। जब हम देखते हैं कि वेद और वाल्मीकि दोनों ही आरंभ में गाये गये हैं, तब यह धारणा हो जाती है कि वे जीवन तत्त्व के समझने के उत्साह हैं।

आरंभ में बड़े-बड़े प्रभावशाली कर्मों का वर्णन कवियों ने अपनी रचना में किया। मानव के हर्ष-शोक की गाथाएँ गायी गयीं। कहीं उन्हें महत्ता की ओर प्रेरित करने के लिए, कहीं अपनी दुःख की, अभाव की गाथा गा कर जी हलका करने के लिए। वैदिक से ले कर लौकिक तक ऐसे श्रव्य-काव्यों का आधार होता था इतिहास। जहाँ नाट्य में आभ्यन्तर की प्रधानता होती हैं वहाँ श्रव्य में बाह्य वर्णन की ही मुख्यता अपेक्षित है। वह बुद्धिवाद से अधिक सम्पर्क रखने वाली वस्तु बनती है। क्योंकि आनन्द से अधिक उस में दुःखानुभूति की व्यापकता होती है। और वह सुनाया जाता था, जनवर्ग को अधिकाधिक कष्टसहिष्णु,