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जीवन संघर्ष में पटु तथा दुःख के प्रभाव से परिचित होने के लिए। नाटकों की तरह उस में रसात्मक अनुभूति, आनन्द का साधारणीकरण न था। घटनात्मक विवेचनाओं की प्रभावशालिनी परम्परा में उत्थान और पतन की कड़ियाँ जोड़ कर महाकाव्यों की सृष्टि हुई थी, विवेकवाद को पुष्ट करने के लिए।

ये वर्णनाएँ दोनों तरह की प्रचलित थीं। काल्पनिक अर्थात् आदर्शवादी, वस्तुस्थिति अर्थात् यथार्थवादी। पहले ढंग के लेखकों ने जीवन को कल्पनामय आदर्शों से पूर्ण करने का प्रयत्न किया। समुद्र पाटना, स्वर्ग विजय करना, यहाँ तक कि असफल होने पर शीतल मृत्यु से आलिंगन करने के लिए महाप्रस्थान करना, इन के वर्णन के विषय बन गये। इन लोगों ने काव्य-न्याय की प्रतिष्ठा के साथ काल्पनिक अपराधों की भी सृष्टि की, केवल आदर्श को उज्ज्वल, विवेक बुद्धि को महत्वपूर्ण बनाने के लिए। भारतीय साहित्य में रामायण तथा उस के अनुयायी बहुत से काव्य प्रायः आदर्श और चारित्र्य के आधार पर ग्रथित हुए हैं। सब जगह कोन्वस्मिन् सांप्रतं लोके गुणयान् कश्च वीर्यवान्, धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च की पुकार है। चारित्र्य की प्रधानता उस की विजय से अंकित की जाती है। रामायण काल का शोक श्लोक में जिस तरह परिणत हो गया, वह तो विदित ही है। परन्तु चरित्र में आदर्श की कल्पना पराकाष्ठा तक पहुँच गयी है।

महाभारत में भी करुण रस की कमी नहीं है; परन्तु वह