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अनुयायी उसे भारतीय पतन काल की मूर्खता ही समझ कर अपने को सुखी बना लें। बाहरी आक्रमणों से भयभीत, अपने आनन्द को भूली हुई जनता साहित्य के आनन्द की साधना कहाँ से कर पाती? सार्वजनिक उत्सव प्रमोद बन्द थे। नाटय-शालायें उजड़ चुकी थीं। मौखिक कहा-सुनी मन्दिरों के कीर्त्तनों और छोटे-मोटे साम्प्रदायिक व्याख्यानों के उपयोगी पद्यों का सृजन हो रहा था। भिन्नता बतानेवाली बुद्धि साहित्य के निर्माण में, सम्प्रदायों का अवलम्ब ले कर, द्वैत प्रथा की ही व्यंजना करने में लगी रही। हाँ प्रेम, विरह-समर्पण के लिए पिछले काल के संस्कृत रीति-ग्रन्थों के आधार पर वात्सल्य आदि नये रसों की काव्य-गत अधूरी सृष्टि भी हो चली थी। यही श्रव्य या पाठ्यकाव्यों की सम्पत्ति थी। नाट्यशास्त्र में उपयोगी पाठ्य का विमर्श किया गया था। यह काव्यगत पाठ्य ही का साहित्यिक विस्तार है, जिस में रस, भाव, छन्द, अलंकार, नायिकाभेद, गुण-वृत्ति और प्रवृत्तियों का समावेश है। जिन को ले कर श्रव्य काव्य का विस्तार किया गया है, वे दस अङ्ग नाट्याश्रयभूत हैं। अलंकार के मूल चार हैं, उपमा, रूपक, दीपक और यमक। इन्हीं आरम्भिक अलङ्कारों को ले कर आलङ्कारिकों ने सैकड़ों अलङ्कार बनाये। काव्य गुण समता, समाधि, ओज, माधुर्य आदि की भी उद्भावना इन्हीं लोगों ने की थी। नायिकायें जिन से पिछले काल का साहित्य भरा पड़ा है, नाटकोपयोगी वस्तु हैं। वृत्तियाँ कैशिकी,