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भारती आदि भी नाट्यानुकूल भाषा-शैली के विश्लेषण हैं। और भी सूक्ष्म, देश सम्बन्धी भारत की मानवीय प्रवृत्तियों का आवन्ती, दाक्षिणाल्या, पाञ्चाली और मागधी की भी नाट्यों में आवश्यकता बतायी गयी है। इस तरह प्राचीन नाट्य साहित्य में उन सब साहित्य अंगों का मूल है, जिन के आधार पर आलंकारिक साहित्य की आलोचना विस्तार करती है।

प्राचीन अद्वैत भावापन्न नाट्य-रसों को भी अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न इसी काल में हुआ। जीवन की एकांगी दृष्टि अधिक सचेष्ट थी। संतों को साहित्य में स्थान नहीं मिला। वे लाल बुझक्कड़ समाज के लिए अनुपयोगी सिद्ध हुए। नाचने, गाने, बजानेवाले, नटों, कुशीलवों से उन का रस छीन कर भाँड़ों और मुक्तक के कवियों ने विवेकवाद की विजय का डंका बजाया। कबीर ने कुछ रहस्यवाद का लोकोपयोगी अनुकरण आरंभ किया था कि विवेक हुंकार कर उठा।

महाकवि तुलसीदास ने आदर्श, विवेक और अधिकारी-भेद के आधार पर युगवाणी रामायण की रचना की। उन का प्रश्न और उत्तर एक संदेश के रूप में हुआ―

अस प्रभु अछत हृदय अविकारी।
सकल जीव जग दीन दुखारी॥

कहना न होगा कि दुःखों की अनुभूति ले, बुद्धिवाद ने एक त्राणकारी महान् शक्ति का अवतरण किया। सब के हृदयों में