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उस का अस्तित्व स्वीकार किया गया। परन्तु परिणाम वही हुआ जो होना चाहिए।

कभी-कभी राम के ही दो भेद बना कर द्वन्द्व खड़ा कर दिया जाता। कबीर के निर्गुण राम के विरुद्ध साकार, सक्रिय और समर्थ राम की अवतारणा तुलसीदास ने की। हाँ, मर्यादा की सीमा राम और लीलापुरुषोत्तम कृष्ण का भी सङ्घर्ष कम न रहा। ये दार्शनिक प्रतीक विवेकवाद ही थे, यद्यपि कृष्ण में प्रेम और आनन्द की मात्रा भी मिली थी।

बीच-बीच में जो उलझनें आनन्द और विवेक की साहित्य वाली धारा में पड़ीं, उन का क्रमोल्लेख न कर के मैं यही कहना चाहता हूँ कि यह काव्य-धारा 'मानव में राम हैं―या लोकातीत परमशक्ति हैं' इसी के विवेचन में लगी रही। मानव ईश्वर से भिन्न नहीं है, यह बोध, यह रसानुभूति विवृत नहीं हो सकी।

किसी सीमा तक राधा और कृष्ण की स्थापना में स्वात्मानन्द का ही विज्ञापन, द्वैत दार्शनिकता के कारण, परोक्ष अनुभूति के रूप में होता रहा। श्रीकृष्ण में नर्तक भाव का भी समावेश था, मधुरता के साथ प्रेम की पुट में तल्लीनता ही द्वैतदर्शन की सीमा बनी। भारत के कृष्ण में, अट्ठारह अक्षोहिणी के विनाश दृश्य के सूत्रधार होने की भी क्षमता थी, नर्तक होने की रसात्मकता भी थी। वैदिक इन्द्र की पूजा बन्द कर के इन्द्र के आत्मवाद को पुनः प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न श्रीकृष्ण ने किया था; किन्तु कृष्ण के आत्म-