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उसका उत्तर भी दिया है। वे लिखते हैं 'कोई भी यह प्रश्न कर सकता है कि संकल्पात्मक मन की सब अनुभूतियाँ श्रेय और प्रेय दोनों ही से पूर्ण होती हैं इसमें क्या प्रमाण है?' उत्तर वे यह देते हैं―'इसी लिए तो साथ ही साथ 'असाधारण अवस्था' का उल्लेख किया गया है। यह असाधारण अवस्था युगों की समष्टि अनुभूतियों में अंतर्निहित रहती है, क्यों कि सत्य अथवा श्रेय ज्ञान कोई व्यक्तिगत सत्ता नहीं, वह एक शाश्वत चैतनता है...जो व्यक्तिगत स्थानीय केन्द्रों के नष्ट हो जाने पर भी निर्विशेष रूप से विद्यमान रहती है। प्रकाश की किरणों के समान भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के दर्पण में प्रतिफलित हो कर वह आलोक को सुंदर और ऊर्जस्वित बनाती है।'

'असाधारण अवस्था' का इस प्रकार निर्वचन कर प्रसादजी ने काव्य और उसकी व्याख्या को रहस्यात्मक पुट दिया है। वह असाधारण अवस्था क्या है, उसके स्वरूप का अंतिम निर्णय नहीं हो सकता। अवश्य अह अनुभवजन्य है किन्तु युगों की समष्टि अनुभूतियों में अंतर्निहित होने के कारण वह इतिहास की वस्तु भी है। इतिहास के अनुशीलन से उसका आभास हम पा सकते हैं।

प्रसादजी ने प्रस्तुत पुस्तक में उस असाधारण अवस्था का ऐतिहासिक अनुशीलन भी किया है। उनके इस अनुशीलन से आत्मा की उस असाधारण अवस्था का, जिसे मननशील संकल्पात्मक अनुभूति या काव्यावस्था कहते हैं, जो परिचय प्राप्त होता है, हम बहुत संक्षेप में उल्लेख कर सकते हैं। यह अवस्था