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वाद पर बुद्धिबाद का इतना रंग चढ़ाया गया कि आत्मवाद तो गौण हो गया, पूजा होने लगी श्रीकृष्ण की। फिर विवेकवाद की साहित्यिक धारा को उन में पूर्ण आलम्बन मिला। उन्हीं के आधार पर अपनी सारी भावनाओं को कुछ-कुछ रहस्यात्मक रूप से व्यक्त करने का अवसर मिला। मीरा और सूर, देव और नन्ददास इसी विभूति से साहित्य को पूर्ण बनाते रहे। रस की प्रचुरता यद्यपि थी, क्योंकि भारतीय रीति ग्रन्थों ने उन्हें श्रव्य में भी बहुत पहले ही प्रयुक्त कर लिया था, फिर भी नाट्य रसों का साधारणीकरण उन में नहीं रहा।

एक बात इस श्रव्य काव्य के सम्बन्ध में और भी कही जा सकती है। अवध में कबीर के समन्वयकारक, हिन्दू-मुसलमानों के सुधारक निर्गुण राम और तुलसीदास के पौराणिक राम के धार्मिक बुद्धिवाद का विरोध, भाषा और प्रान्त दोनों साधनों के साथ, ब्रजभाषा में हुआ। कृष्ण में प्रेम, विरह और समर्पण वाले सिद्धान्त का प्रचार कर के भागवत के अनुयायी श्री वल्लभस्वामी और चैतन्य ने उत्तरीय भारत में इसी कारण अधिक सफलता प्राप्त की कि उन की धार्मिकता में मानवीय वासनाओं का उल्लेख उपास्य के आधार पर होने लगा था। फलतः कविता का वह प्रवाह व्यापक हो उठा। सुधारवादी शुद्ध धार्मिक ही बने रहे। रामायण का धर्मग्रन्थ की तरह पाठ होने लगा; परन्तु साहित्य दृष्टि से जन-साधारण ने कृष्णचरित्र को ही प्रधानता दी।