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समय-समय पर आवरण में पड़ी हुई मानवता अपना प्रदर्शन करती ही है। मनुष्य अपने सुख-दुःख का उल्लेख चाहता है। वर्त्तमान खड़ी बोली उसी आत्मानुभूति को, युग की आवश्यकता के अनुसार, वह राष्ट्रीयता की हो या वेदना की―सीधे-सीधे कहने में लगी। कहना न होगा कि सीतल इत्यादि ने खड़ी बोली की नींव पहले से रख दी थी। सहचरी शरण―कहीं-कहीं कबीर और श्री हरिश्चन्द्र ने भी इस को अपनाया था।

हिन्दी के इस पाठ्य या श्रव्य काव्य में ठीक वही अव्यवस्था है जैसी हमारे सामाजिक जीवन में विगत कई सौ वर्षों से होती रही है। रसात्मकता नहीं, किन्तु रसाभास ही होता रहा। यद्यपि भक्ति को भी इन्हीं लोगों ने मुख्य रस बना लिया था, किन्तु उस में व्याज से वासना की बात कहने के कारण वह दृढ़ प्रभाव जमाने में असमर्थ थी। क्षणिक भावावेश हो सकता था। जगत और अन्तरात्मा की अभिन्नता की विवृति उस में नहीं मिलेगी। एक तरह से हिन्दी काव्यों का यह युग सन्दिग्ध और अनिश्चित सा है। इस में न तो पौराणिक काल की महत्ता है और न है काव्य काल को सौन्दर्य। चेतना राष्ट्रीय पतन के कारण अव्यवस्थित थी। धर्म की आड़ में नये-नये आदर्शों की सृष्टि, भय से त्राण पाने की दुराशा ने इस युग के साहित्य में, अवध वाली धारा में मिथ्या आदर्शवाद और ब्रज की धारा में मिथ्या रहस्यवाद का सृजन किया है।