पृष्ठ:काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध.pdf/१८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
( १४५ )

शब्द और अर्थ की यह स्वाभाविक वक्रता विच्छित्ति, छाया और कान्ति का सृजन करती है। इस वैचित्र्य का सृजन करना विदग्ध कवि का ही काम है। वैदग्ध्य भंगी भणिति में शब्द की वक्रता और अर्थ की वक्रता लोकोत्तीर्ण रूप से अवस्थित होती है। (शब्दस्यहि वक्रता अभिधेयस्य च वक्रता लोकोतीर्णेन रूपेणावस्थानम्—लोचन २०८) कुन्तक के मत में ऐसी भणिति शास्त्रादि प्रसिद्ध शब्दार्थोपनिबन्ध व्यतिरेकी होती है। यह रम्यच्छायान्तरस्पर्शी वक्रता वर्ण से लेकर प्रबन्ध तक में होती है। कुन्तक के शब्दों में यह उज्ज्वलाच्छायातिशय रमणीयता (१३३) वक्रता की उद्‌भासिनी है।


परस्परस्य शोभायै बहवः पतिताः क्वचित्।
प्रकाराजनयन्त्येतां चित्रच्छायामनोहराम्॥॥३४॥

२ उन्मेष व॰ जी॰।

कभी-कभी स्वानुभव संवेदनीय वस्तु की अभिव्यक्ति के लिए सर्वनामादिकों का सुन्दर प्रयोग इस छायामयी वक्रता का कारण होता है—वे आँखें कुछ कहती हैं।

अथवा—

निद्रानिमीलितदृशो मद मन्थराया
नाप्यर्थवन्तिनचयानि निरर्थकानि।
अद्यापि मे वरतनोर्मधुराणि तस्या-
स्तान्यक्षराणि हृदये किमपिध्वनन्ति।