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निरहकार मृगाङ्क, पृथ्वी गतयौवना, संवेदन मिवाम्बरं, मेघ के लिए जनपद बधू लोचनैः पीयमानः या कामदेव के कुसुम शर के लिए विश्वसनीयमायुधं ये सब प्रयोग वाह्य सादृश्य से अधिक आन्तर सादृश्य को प्रगट करने वाले हैं। और भी

आर्द्रं ज्वलति ज्योतिरहमस्मि, मधुनक्त मुतोषसि मधुमत् पार्थिवं रजः इत्यादि श्रुतियों में इस प्रकार की अभिव्यंजनाएं बहुत मिलती हैं। प्राचीनों ने भी प्रकृति की चिरनिःशब्दता का अनुभव किया था―

शुचि शीतल चन्द्रिकाप्लुता श्चिर निःशब्द मनोहरा दिशाः
प्रशमस्य मनोभवस्य वा हृदि तस्याप्यथ हेतुतां ययुः॥

इन अभिव्यक्तियों में जो छाया की स्निग्धता है, सरलता है, यह विचित्र है। अलङ्कार के भीतर आने पर भी ये उन से कुछ अधिक हैं। कदाचित् ऐसे प्रयोगों के आधार पर जिन अलङ्कारों का निर्माण होता था, उन्हीं के लिए आनन्दवर्धन ने कहा है―

तेऽलंकाराःपरांछायां यान्तिध्वन्धयंगतां गतः। (२―२९)

प्राचीन साहित्य में यह छायावाद अपना स्थान बना चुका है। हिन्दी में जब इस तरह के प्रयोग आरम्भ हुए तो कुछ लोग चौंके सही, परन्तु विरोध करने पर भी अभिव्यक्ति के इस ढंग को ग्रहण करना पड़ा। कहना न होगा कि ये अनुभूतिमय आत्मस्पर्श काव्य जगत् के लिए अत्यन्त आवश्यक थे। काकु या श्लेष की तरह यह सीधी वक्रोक्ति भी न थी। वाह्य से हट कर काव्य की प्रवृत्ति आन्तर की ओर चल पड़ी थी।