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हैं किन्तु स्थूल रूप से उन्हें हम विवेकवादी या अनात्मवादी धारा के अंतर्गत ग्रहण कर सकते हैं। इन्हीं धाराओं के प्रतीक वैदिक काल में वरुण (जो एकेश्वरवाद के आधार हुए और जिनकी गणना असुरों में भी की गई) और परवर्ती काल में अनात्मवादी बौद्ध थे जो चैत्यपूजक हुए। पौराणिक काल में इसी दुःखवादी विचारधारा की प्रधानता थी और राम इसी विवेक पक्ष के प्रतिनिधि थे। कृष्ण के चरित्र में यद्यपि आनन्द की मात्रा कम न थी किन्तु मुख्य पौराणिक विचारधारा–दुःखवाद से उनकी चरित्र-सृष्टि भी आक्रान्त हैं। शांकर वेदान्त बौद्धों के दुःखवाद में संसार से अतीत सच्चिदानंद स्वरूप की प्रतिष्ठा करता है। यह आदिम आर्य आत्मवाद की दुःख से मिश्रित धारा है। यद्यपि इसमें आत्मा की अमरता और आनंदमयता का संदेश है किन्तु संसार मिथ्या या माया की आर्त पुकार भी है। परवर्त्ती भक्ति संप्रदायों के संबंध में प्रसादजी की धारणा है कि ये अनात्मवादी बौद्धों के ही पौराणिक रूपान्तर हैं। अपने ऊपर एक त्राणकर्ता की कल्पना और उसकी आवश्यकता दुःखसंभूत दर्शन का ही परिणाम है। यद्यपि प्रसादजी का यह मत है कि 'मनुष्य की सत्ता को पूर्ण मानने की प्रेरणा ही भारतीय अवतारवाद की जननी हैं’ किन्तु भक्ति संप्रदायों में यह प्रेरणा दृढ़मूल नहीं हो सकी और दुःखवादी या रक्षावादी विचारों ने उस पर कब्जा कर लिया। कबीर आदि निर्गुण संत भी दुःखवादी ही थे, समय की आवश्यकता से सच्चे आनंदवादी रहस्यवादियों को उनके लिए स्थान करना पड़ा।