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के द्वारा 'अहम्' का 'इदम्' से समन्वय करने का सुन्दर प्रयत्न है।' उनके शब्दों में 'वर्तमान रहस्यवाद की धारा (जिसे छायावाद काव्य भी कहते हैं) भारत की निजी संपत्ति है, इसमें संदेह नहीं।'

यह न समझना चाहिए कि काव्यात्मक रहस्यवाद बस इतना ही है। इतना तो वह तब होता जब प्रसादजी की दृष्टि पूर्ण साहित्यिक न होकर मुख्यतः सांप्रदायिक होती। काव्य में जहाँ कहीं वास्तविक आनन्द या रस का प्रवाह है वहीं आत्मा को संकल्पात्मक प्रेरणा है और वहीं वह 'असाधारण अवस्था' है, जिसे काव्य की—विशेष कर रहस्य-काव्य की—जन्मदातृ माना गया है। जिन काव्यों का प्रवाह आनन्द के स्रोत से उद्रिक्त है, दुःख जिनमें निमित्त बन कर आया है लक्ष्य नहीं—जो मुख्यतः प्रगतिशील सांस्कृतिक सृष्टियाँ हैं—वे सभी प्रसादजी की रहस्यकाव्य की व्याख्या के अंतर्गत आ जाती हैं। प्राचीन भारतीय साहित्य में नाटक एक प्रधान अंग है। नाटक में रस या आनन्द की प्रधानता मानी गई है। साहित्य के अन्य अंग काव्य, उपन्यास आदि तो दुःखान्त हो सकते हैं किन्तु नाटकों के लिए ऐसी व्यवस्था सर्वमान्य रही है कि उसमें दुःखान्त सृष्टि नहीं होनी चाहिए। प्रसाद जी ने इसका कारण यह बतलाया है कि नाटकों में आनन्द या रस का साधारणीकरण होता है। प्रत्येक दर्शक अभिनीत वस्तु के साथ हृदय का तादात्म्य करके पूर्ण रस की अनुभूति करता है। वह अभिनीत दृश्यों से एकाकार हो जाता