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प्रसाद जी ने वह अत्यन्त मार्मिक दार्शनिक निष्पत्ति की है जिसके आधार पर उनका सारा ऊर्ध्व-लिखित विवेचन स्थिर है। वह निष्पत्ति पूर्णतः मनोवैज्ञानिक आधार पर स्थिर है। अभिनय देखते हुए दर्शक के हृदय में साधारणीकरण या तादात्म्य के आधार पर जो रसानुभूति होती है, वह साहित्यिक शास्त्र से सर्वथा स्वीकृत है और ब्रह्मानन्द-सहोदर कही गई है। किन्तु साधारणीकरण होता किस वस्तु का है? अभिनीत पात्रों के प्राकृतिक व्यवहारों और वासनाओं का। इससे स्पष्ट है कि प्राकृतिक वासनाओं का आत्मस्वरूप में स्वीकार ही रस का हेतु है—वह रस जो ब्रह्मानन्द-सहोदर कहा गया हैं। इससे यह निष्कर्ष निकला कि ब्रह्मानन्द-सहोदर रस प्रकृति के उपादानों से ही बना है—उनका बहिष्कार करके किन्हीं अलौकिक उपादानों द्वारा नहीं। दार्शनिक क्षेत्र में यही उपपत्ति इस प्रकार ग्रहण की जायगी कि आनंद की सत्ता को प्रकृतिबाह्य मानने की आवश्यकृता नहीं है, प्रकृति का आनंद-स्वरूप में स्वीकार ही वास्तविक अद्वैत है।

यहाँ फिर यह कहने की आवश्यकता है कि प्राकृतिक वासनाओं का जो साधारणीकरण रस रूप में होता है वह श्रेयहीन प्रेय नहीं हैं, श्रेयपूर्ण प्रेय है। वह प्राकृतिक द्वैत से संयुक्त नहीं है आत्मिक अद्वैत से निष्पन्न है। उपकरण प्रकृति है किन्तु आत्म विरहित प्रकृति नहीं। यह रस आत्मा की मननशीलता का परिणाम है, कोई प्राकृतिक प्रक्रिया नहीं। इसी अर्थ में प्रसादजी