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ने काव्य को अध्यात्मिक वस्तु सिद्ध किया है और इसी अर्थ में वे प्राकृतिक सत्ता का आत्मसत्ता में समन्वय करते हैं।

प्रसादजी का यह मंतव्य है कि आत्मा की यह विशुद्ध अद्वय तरंग जैसी प्राचीन भारतीय नाटकों में प्रवाहित है वैसी अन्य साहित्यिक कृतियों में नहीं। उनका कथन यह है कि नाट्य साहित्य में रस, या आनन्द अनिवार्य होने के कारण काव्य की मूल रहस्यात्मक धारा नाटकों में ही प्रवर्तित हुई। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य भी विवेकवाद से (जो दुःखवाद का ही एक रूप है) अभिभूत हैं। उनमें से एक (रामायण) आदर्शात्मक विवेकवाद की पद्धति पर रचा गया है और दूसरा यथार्थवादात्मक पद्धति पर। दोनों के मूल में विवेक या विकल्प का अंश है। पूर्णतः संकल्पात्मक ये कृतियाँ नहीं हैं। आदर्शवाद और यथार्थवाद इन शब्दों का प्रयोग स्पष्ट रूप से इस प्रसंग में न करने पर भी प्रसादजी का आशय यही जान पड़ता है। ये शब्द प्रसादजी ने आधुनिक प्रचलित अर्थ से कुछ भिन्न अर्थ में व्यवहृत किए हैं जिसे हम आगे देखेंगे। यहाँ समझने के लिए इतना ही पर्याप्त है कि आदर्शवाद में लोकोत्तर चरित्रों और भावों का समावेश प्रसाद जी ने माना है और यथार्थवाद में लोकसामान्य घटनाओं, मनोवृत्तियों आदि का। किन्तु ये दोनों ही वाद प्रसाद जी की संमति में बौद्धिक या विवेकप्रसूत हैं। ये रसात्मक या आनंदात्मक नहीं हैं।

यही नहीं प्रसादजी का मत है कि पौराणिक साहित्य से लेकर अधिकांश श्रव्य काव्य (जिन्हें प्रसाद जी ने समयोपयोगी