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'पाठ्य काव्य' नाम दिया है) जिनमें कथासरित्सागर और दशकुमार-चरित्र को 'यथार्थवादी' रचनाएँ और कालिदास, अश्वघोष, दण्डि, भवभूति और भारवि फा काव्यकाल भी सम्मिलित है, बाहरी आक्रमण से हीनवीर्य हुई जाति की कृतियाँ हैं। इनमें प्राचीन अद्वैत भावापन्न 'नाट्यरस' नहीं है। 'आत्मा की मननशक्ति की वह असाधारण' अवस्था (वह रहस्यात्मक प्रेरणा) नहीं है जो श्रेय सत्य को उसके मूल चारुत्व में सहसा ग्रहण कर लेनी है।'

संक्षेप में प्रसाद जी की मुख्य विवेचना यहाँ समाप्त हो जाती है। स्थूल रूप से हम कह सकते हैं कि उन्होंने एक और आनंदप्रधान, रहस्यात्मक या रसात्मक और दूसरी ओर विवेकप्रधान, बौद्धिक या आलंकारिक साहित्य की दो कोटियाँ स्थिर की हैं और उन्हें अद्वैत और द्वैत दर्शन से क्रमशः अनुप्राणित माना है। इस प्रकार को श्रेणिविभाग नया, विचारोत्तेजक और प्रसादजी की प्रतिभा का परिचायक है। हिन्दी के साहित्यिक और दार्शनिक क्षेत्रों में यह प्रायः अभुतपूर्व है। अवश्य ही ये श्रेणियों बहुत दृष्टि से परस्पर नितांत विरोधिनी नहीं हैं, ऐसी भी संभावनाएँ ध्यान में आती हैं जब ये दोनों ऊपर से एक दूसरे के बहुत निकट आ जाएँ, किन्तु इनके मूल स्रोतों, लक्षणों और प्रक्रियाओं में स्पष्ट अंतर है। यद्यपि प्रसादजी ने यह बात कहीं स्पष्ट रूप से नहीं कही है और ऐतिहासिक शैली से ही विवेचन किया है तो भी यह कई स्थानों पर