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ध्वनित होता है कि प्रथम धारा का साहित्य ही वास्तव में प्रगतिशील साहित्य है और दूसरी धारा का साहित्य मुख्यतः ह्रासोन्मुख है। इस विचार से हिन्दी साहित्य के इतिहास पर दृष्टि डाली जाय तो प्रचलित धारणाओं में बहुत अधिक फेर-फार करने की आवश्यकता प्रतीत होगी।

इसी प्रकार अद्वैत और द्वैत के संबंध की प्रसाद जी की दार्शनिक उद्भावना—प्रकृति का आत्मा से पृथक्करण नहीं वरन् उसमें पर्यवसान अद्वैत है और द्वैत आत्मा और जगत् की भिन्नता का विकल्प है—आधुनिक आध्यात्मिक क्षेत्रों में कम उत्तेजना नहीं उत्पन्न करेगी। यद्यपि विचारपूर्वक देखा जाय तो इसमें प्राचीन प्रवृत्तिमार्ग, अथवा आत्मा की छत्रछाया में निष्काम कर्म की आधुनिक आध्यात्मिक उपपत्ति से विशेष भिन्नता नहीं है, तो भी प्रकारभेद तो है ही।

प्रसाद जी की संमति में अद्वयता की साधना ही मुख्य साहित्यिक और दार्शनिक साधना है तथा इन दोनों का ही हिन्दी क्षेत्र में प्रायः अभाव है। साहित्य में वे आनन्द सिद्धान्त के षृष्ठपोषक हैं (हिन्दी के भक्ति और शृंगार दोनों ही कालों में वास्तविक आनन्द की न्यूनता थी) और दर्शन में शक्ति-अद्वैतवाद के संदेशवाहक। आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति में इन दोनों का समन्वय हो जाता है।

इसके अतिरिक्त प्रसादजी के अन्य आनुषंगिक विचारों का अनुशीलन भी कम उपादेय नहीं है। उदाहरणार्थं रस के प्रसंग में