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सिद्धान्त से ही इतिहासकार से अधिक कुछ नहीं ठहरता। यह चित्रित करता है कि समाज कैसा है या था। स्पष्ट ही यहाँ प्रसादजी ने यथार्थ और आदर्श दोनों ही वादों को विवेकप्रसूत माना है आनन्दोद्भूत, अद्वैत अथवा सच्चा सांस्कृतिक नहीं। इसीलिए प्रसादजी की ये व्याख्याएँ प्रचलित पारिभाषिक व्याख्याओं से कुछ भिन्न हो गई हैं।

प्रसादजी स्पष्ट ही इन दोनों वादों का विरोध करते हैं। उनका कथन है कि 'सांस्कृतिक केन्द्रों में जिस विकास का आभास दिखलाई पड़ता है वह महत्व और लघुत्त्व दोनों सीमान्तों के बीच की वस्तु है; यहाँ महत्त्व और लघुत्व के दोनों सीमान्तों से प्रसादजी का तात्पर्य ऐतिहासिक आदर्शवाद और यथार्थवाद के सीमान्तों से है। दार्शनिक सीमान्तों की ओर यहाँ उनकी दृष्टि नहीं है।

इस बीच की वस्तु या मध्यस्थता के निर्देश से यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि प्रसादजी सिद्धान्ततः मध्यवर्गीय थे। प्रसादजी आदर्शवाद और यथार्थवाद की बौद्धिक दार्शनिकता के विरोधी थे। उनके रहस्यवाद या शक्तिसिद्धान्त में दोनों के अंश हो सकते हैं किन्तु दोनों की सीमाएं नहीं हैं और दोनों को मूल दुखात्मकता का भी निषेध है।

हिन्दी साहित्य के इतिहास में इसका नाम छायावाद पड़ा और ऐतिहासिक दृष्टि से इसमें उक्त दोनों वर्गों (आदर्शवाद और यथार्थवाद) की मध्यस्थता के चिन्ह भी संभव है मिलें, किन्तु