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दार्शनिक दृष्टि से वह अद्वैत पर स्थित है और वे दोनों बाद द्वैत पर। प्रसादजी ने इस अन्तर का ही अधिक आग्रह किया है। उनकी मीमांसा से प्रकट होता है कि छायावाद ऊपरी दृष्टि से तो यथार्थवाद के ही निकट है (ऐसा कहते हुए उनका ध्यान आरंभिक आदर्शवादी छायावादियों की ओर नहीं गया जिनकी एक प्रतिनिधि रचना 'साधना' है) किन्तु प्रसादजी को संमति में यथार्थवाद श्रीहरिश्चन्द्र के 'भारत दुर्दशा' आदि में स्थूल, बाह्य वर्णनों तक ही सीमित रहा, और दुःखप्रधान था। छायावाद में 'वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी।...ये नवीन भाव आंतरिक स्पर्श से पुलकित थे। सूक्ष्म आभ्यन्तर भावों के व्यवहार में प्रचलित पद योजना असफल रही। उनके लिए नवीन शैली, नया वाक्यविन्यास आवश्यक था।'

यह प्रबल नवीन उत्थान किसी मध्यवर्ग के मान का नहीं था। इसके लिए नव्य दर्शन की आवश्यकता थी। यह नवीन दर्शन अद्वैत रहस्यवाद ही है जिसके अनुसार 'विश्वसुन्दरी प्रकृति में चेतनता का आरोप प्रचुरता से उपलब्ध होता है। यह प्रकृति अथवा शक्ति का रहस्यवाद है जिनकी सौन्दर्यमयी व्यंजना वर्तमान हिन्दी में हो रही है।' छायायाद एक ऐतिहासिक आवश्यकता भी है और दार्शनिक अभ्युत्थान भी। प्रसादजी का यह स्पष्ट मत है कि दार्शनिक दृष्टि से यह अभ्युत्थान प्राचीन रहस्यात्मक परंपरा में है जिसे भूले भारत को बहुत दिन हो गए थे।

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