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'नाटकों का आरंभ' और 'रंग मंच' पर प्रसादजी के दो निबन्ध प्रस्तुत पुस्तक में हैं जिन्हें मूल में ही अध्ययन करने की आवश्यकता है। यहाँ उनका विवरण अधूरा और अप्रासंगिक भी होगा क्योंकि उनमें व्याख्येय कोई विशेष वस्तु नहीं है, सब-का-सब विवरणात्मक है।

चार प्रश्न और भी विचारणीय हैं―वे चारों पहले ही निबन्ध (काव्य और कला) के हैं। वे प्रस्तुत पुस्तक के मूल प्रश्नों में से नहीं हैं, इसीलिए अब तक छूटे हुए थे। किन्तु अपने स्थान पर वे सभी महत्त्वपूर्ण हैं। पहला प्रश्न कला की परिभाषा और दूसरा मूर्त और अमूर्त आधार पर कलाओं के वर्गीकरण का है। तीसरा काव्य पर राष्ट्रीय संस्कृति का प्रभाव और अन्तिम प्रश्न काव्य में अनुभूति की प्रधानता पर है। 'कला' शब्द का भारतीय व्यवहार पाश्चात्य व्यवहार से भिन्न है। यहाँ कला केवल छंद-रचना के अर्थ में व्यवहृत हुई, इसीलिए काव्य नहीं 'समस्यापूर्ति' की गणना कला में की गई। स्पष्ट ही काव्य केवल समस्यापूर्ति नहीं है, समस्यापूर्ति या छंद तो उसका वाहनमात्र है―बिना सवार का घोड़ा। पाश्चात्य अर्थ में कला सवार सहित घोड़ा है इसलिए उसकी शिक्षा-दीक्षा और सामाजिक संस्कृति में उसका स्थान स्वभावतः भिन्न होना ही चाहिए।

कलाओं के वर्गीकरण का प्रश्न कलाओं के पाश्चात्य अर्थ में है। चित्र, संगीत, स्थापत्य, साहित्य आदि कलाओं के वर्गीकरण का कुछ क्रम आवश्यक है। हीगेल ने कलाओं के मूर्त्त आधार को