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या आवरण में लाने की चेष्टा करती है। इसलिए आसक्ति का आरोपण स्त्री में ही है। 'नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायम् नपुंसकः' मानने पर भी व्यवहार में ब्रह्म पुरुष है, माया स्त्री धर्मिणी। स्त्रीत्व में प्रवृत्ति के कारण नैसर्गिक आकर्षण मान कर उसे प्रार्थिनी बनाया गया है।' देशान्तर और जात्यंतर से इस प्रथा में भिन्नता भी पाई जाती है। इसलिए काव्य के देश-जाति-गत कुछ स्थायी उपलक्षण (Conventions) मानने पड़ते हैं।

अन्तिम प्रश्न काव्य में अनुभूति या अभिव्यक्ति की प्रधानता विषयक है। अभिव्यंजनावाद अभिव्यक्ति की ही प्रधानता स्वीकार करता है, किन्तु प्रसादजी अनुभूति की प्रधानता मानते हैं। उन्होंने इस सम्बन्ध में हिन्दी के दो सर्वश्रेष्ठ कवियों का उदाहरण सामने रक्खा है—सूरदास और गोस्वामी तुलसीदास का। वे पूछते हैं—'कहा जाता है कि वात्सल्य की अभिव्यक्ति में तुलसीदास सूरदास से पिछड़ गए हैं। तो क्या यह मान लेना पड़ेगा कि तुलसीदास के पास वह कौशल या शब्दविन्यासपटुता नहीं थी जिसके अभाव के कारण ही वे वात्सल्य की संपूर्ण अभिव्यक्ति नहीं कर सकें? प्रश्न का उत्तर भी वे देते हैं 'मैं तो कहूँगा, यही प्रमाण है आत्मानुभूति की प्रधानता का। सूरदास के वात्सल्य में संकल्पात्मक मौलिक अनुभूति की तीव्रता है, उस विषय की प्रधानता के कारण।.... तुलसीदास के हृदय में वास्तविक अनुभूति तो रामचन्द्रजी की भक्त-रक्षण-समर्थ दयालुला