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है, न्याय पूर्ण ईश्वरता है, जीभ ही शुद्धावस्था में पाप-पुण्य निर्लप्त कृष्ण चन्द्र की शिशु मूर्ति का शुद्धाद्वैतवाद नहीं।'

प्रसादजी का यह उत्तर सोलह आना सत्य है किन्तु अभिव्यज्जना-वादियों का प्रश्न यह है कि अनुभूति है क्या वस्तु? एक ओर तो कवि को अनुप्रेरित करने वाले सृष्टि के वस्तु-व्यापार हैं और दूसरी ओर है कवि की काव्य या अभिव्यक्ति। इन दोनों के बीच में अनुभूति है। यह अनुभूति काव्य-व्यापार में कहीं भी स्वतंत्र नहीं है। एक ओर वह वाह्य अभिव्यक्ति (संसार और उसके भावादियों) से प्रतिक्षण निर्मित होती है और दूसरी ओर काव्याभिव्यक्ति में परिणत होती है। केवल अनुभूति काव्य का कोई उपादान नहीं। अनुभूति चाहे जितनी हो, काव्य का निर्माण नहीं हो सकता। काव्यनिर्माण के लिए काव्यात्मक अभिव्यक्ति ही आवश्यक है। अभिव्यक्ति केवल रचनाकौशल नहीं है। अनुभूतिपूर्ण रचनाकौशल हैं।

प्रसादजी का इस मत से कोई विरोध नहीं है, किन्तु वे इसकी छान-बीन में उतरे नहीं हैं। हाँ, वे अभिव्यज्जनावादियों की भाँति अनुभूति को गौणता न देकर उसे मुख्य मानते हैं। अनुभूति का निर्माण कैसे होता है यह तो प्रश्न ही दूसरा है। वस्तुतः वे अनुभूति को मननशील आत्मा की असाधारण अवस्था मानते हैं, और अभिव्यज्जनावादियों की व्यक्त वाह्म प्रक्रियाओं को विशेष महत्व नहीं देते। अभिव्यज्जनावादी क्रोस और रहस्ययादी 'प्रसाद' में इतना ही मुख्य अन्तर है।