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अंत मे यह कहते हुए पुस्तक पाठकों के हाथ में रक्खी जा रही है कि यह अपने ढंग की अकेली रचना है जो हिन्दी की अपनी मानी जाय और साहित्य के सुयोग्य विद्यार्थियों को स्नेह और विश्वासपूर्वक पढ़ने को दी जाय। निश्चय ही यह कहना मेरे लिए जितना सुखद है आज उतना ही दुःखप्रद भी।

 
गीता प्रेस, गोरखपुर नन्ददुलारे वाजपेयी
११–३–३९.