पृष्ठ:काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध.pdf/४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
(९)

हम बाध्य हो रहे हैं अपने ज्ञान-सम्बन्धी प्रतीकों को उसी दृष्टि से देखने के लिए। यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार के विवेचन में हम केवल निरुपाय हो कर ही प्रवृत्त नहीं होते; किन्तु विचारविनिमय के नये साधनों की उपस्थिति के कारण संसार की विचार-धारा से कोई भी अपने को अछूता नहीं रख सकता। इस सचेतनता के परिणाम में हमें अपनी सुरुचि की ओर प्रत्यावर्तन करना चाहिए। क्योंकि हमारे मौलिक ज्ञान-प्रतीक दुर्बल नहीं हैं।

हिन्दी में आलोचना कला के नाम से आरम्भ होती है। और साधारणतः हेगेल के मतानुसार मूर्त्त और अमूर्त्त विभागों के द्वारा कलाओं में लधुत्व और महत्त्व समझा जाता है। इस विभाग में सुगमता अवश्य है; किन्तु इसका ऐतिहासिक और वैज्ञानिक विवेचन होने की संभावना जैसी पाश्चात्य साहित्य में है वैसी भारतीय साहित्य में नहीं। उनके पास अरस्तू से ले कर वर्तमान काल तक की सौन्दर्यानुभूति-सम्बन्धिनी विचार-धारा का क्रमविकास और प्रतीकों के साथ-साथ उनका इतिहास तो है ही, सबसे अच्छा साधन उनकी अविच्छिन्न सांस्कृतिक एकता भी है। हमारी भाषा के साहित्य में वैसा सामञ्जस्य नहीं है। बीच-बीच में इतने आभाव था अंधकार-काल हैं कि उनमें कितनी ही विरुद्ध संस्कृतियाँ भारतीय रंगस्थल पर अवतीर्ण और लोप होती दिखाई देती हैं, जिन्होंने हमारी सौन्दर्यानुभूति के प्रतीकों को अनेक प्रकार से विकृत करने का ही उद्योग किया है।