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यों तो पाश्चात्य वर्गीकरण में भी मतभेद दिखलाई पड़ता है। प्राचीन काल में ग्रीस का दार्शनिक प्लेटो कविता का संगीत के अन्तर्गत वर्णन करता है; किन्तु वर्तमान विचार-धारा मूर्त्त और अमूर्त्त कलाओं का भेद करते हुए भी कविता को अमूर्त्त संगीत कला से ऊँचा स्थान देती है। कला के इस तरह विभाग करनेवालों का कहना है कि मानव-सौन्दर्य-बोध का सत्ता का निदर्शन तारतम्य के द्वारा दो भागों में किया जा सकता है। एक स्थूल और बाह्य तथा भौतिक पदार्थ के आधार पर ग्रथित होने के कारण भिन्न कोटि की, मूर्त्त होती है। जिसका चाक्षुष् प्रत्यक्ष हो सके वह मूर्त्त है। गृह-निर्माण-विद्या, मूर्त्तिकला और चित्रकारी, ये कला के मूर्त्त विभाग हैं और क्रमशः अपनी कोटि में ही सूक्ष्म होते-होते अपना श्रेणी-विभाग करती हैं।

संगीत-कला और कविता अमूर्त्त कलाएँ हैं। संगीत-कला नादात्मक है और कविता उस से उच्च कोटि की अमूर्त्त कला है। काव्यकला को अमूर्त्त मानने में जो मनोवृत्ति दिखलाई देती है वह महत्त्व उसकी परम्परा के कारण है। यों तो साहित्य कला उन्हीं तर्कों के आधार पर मूर्त्त भी मानी जा सकती है; क्योंकि साहित्य कला अपनी वर्णमालाओं के द्वारा प्रत्यक्ष मूत्तिमती है। वर्णमात्रृका की विशद कल्पना तन्त्रशास्त्रों में बहुत विस्तृत रूप से की गई है। अ से आरंभ हो कर ह तक के ज्ञान का ही प्रतीक अहं है। ये जितनी अनुभूतियाँ हैं, जितने ज्ञान हैं, अहं के—