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ग्रीक लोगों के सौन्दर्य-बोध में जो एक क्रम-विकास दिखलाई पड़ता है उसका परिपाक संभवतः पश्चिम में इस विचार-प्रणाली पर हुआ है कि मानव-स्वभाव सौन्दर्यानुभूति के द्वारा क्रमविकास करता है और स्थूल से परिचित होते-होते सूक्ष्म की ओर जाता है। इसमें स्वर्ग और नरक का, जगत् की जटिलता से परे एक पवित्रता और महत्व की स्थापना का मानसिक उद्योग दिखलाई देता है। और इस में ईसाई धार्मिक संस्कृति ओतप्रोत है। कलुषित और मूर्त्त संसार निम्न कोटि में, अमूर्त्त और पवित्र ईश्वर का स्वर्ग इस से परे और उच्च कोटि में।

भारतीय उपनिषदों का प्राचीन ब्रह्मवाद इस मूर्त्त विश्व को ब्रह्म से अलग निकृष्ट स्थिति में नहीं मानता। वह विश्व को ब्रह्म का स्वरूप बताता है—

ब्रह्मैवेदमृतं पुरस्ताव् ब्रह्मपश्चादक्षिणतश्चोत्तरेण।
अधश्चोर्ध्वं च प्रसूतं ब्रह्मवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम्॥

आगमों में भी शिव को शक्ति विग्रही मानते हैं। और यही पक्की अद्वैत-भावना कही गई है; अर्थात्—पुरुष का शरीर प्रकृति है। कदाचित् अर्द्धनारीश्वर की संश्लिष्ट कल्पना का मूल भी यही दार्शनिक विवेचन है। संभवतः पिछले काल में मनुष्य की सत्ता को पूर्ण मानने की प्रेरणा ही भारतीय अवतारवाद की जननी है। कला के ईसाई आलोचक हेबेल ने सम्भवतः इसी लिए कहा है