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कि―The Hindu draws no distinction between what is sacred and profane.

पूर्व, भारत से पश्चिम का यह मौलिक मतभेद है। यही कारण है कि पश्चिम स्वर्गीय साम्राज्य की घोषणा करते हुए भी अधिकतर भौतिक या materialistic बना हुआ है और भारत मूर्त्ति-पूजा और पञ्च-महायज्ञों के क्रियाकाण्ड में भी आध्यात्म-भाव से अनुप्राणित है।

यही कारण है कि ग्रीस द्वारा प्रचलित पश्चिमी सौन्दर्यानुभूति बाह्य को, मुर्त्त को, विशेषता दे कर उस की सीमा में ही उसे पूर्ण बनाने की चेष्टा करती है और भारतीय विचार-धारा ज्ञानात्मक होने के कारण मूर्त्त और अमूर्त्त का भेद हटाते हुए वाह्य और आभ्यन्तर का एकीकरण करने का प्रयत्न करती है।

ऊपर कहा का चुका है कि सौन्दर्य-बोध में पाश्चात्य विवेचकों के मतानुसार मूर्त्त और अमूर्त्त भेद सम्बन्धी कल्पना विवेचन की रीढ़ बन रही है। जब यह अमूर्त्त के साथ सौन्दर्यशास्त्र का सम्बन्ध ठहराती है, तो दुर्बलता में ग्रस्त होने के कारण अपने को स्पष्ट नहीं कर पाती। इस का कारण यही है कि वे सद्भावात्मक ज्ञानमय प्रतीकों को अमूर्त्त सौन्दर्य कह कर घोषित करते हैं, जो सौन्दर्य के द्वारा ही विवेचन किये जाने पर केवल प्रेय तक पहुँच पाते हैं। श्रेय, आत्मकल्याण-कल्पना अधूरी रह जाती हैं।

सत्य की उपलब्धि के लिए ज्ञान की साधना आरम्भ होती

र॰ २