पृष्ठ:काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध.pdf/५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
(१८)

एक द्रष्टा कवि का सुन्दर दर्शन है। संकल्पात्मक मूल अनुभूति कहने से मेरा जो तात्पर्य है उसे भी समझ लेना होगा। आत्मा की मनन-शक्ति की वह असाधारण अवस्था जो श्रेय सत्य को उसके मूल चारुत्व में सहसा ग्रहण कर लेती है, काव्य में संकल्पात्मक मूल अनुभूति कही जा सकती है। कोई भी यह प्रश्न कर सकता है कि संकल्पात्मक मन की सब अनुभूतियाँ श्रेय और प्रेय दोनों ही से पूर्ण होती हैं, इसमें क्या प्रमाण है? किंतु इसीलिए साथ ही साथ असाधारण अवस्था का भी उल्लेख किया गया है। यह असाधारण अवस्था युगों की समष्टि अनुभूतियों में अंतर्निहित रहती है; क्योंकि सत्य अथवा श्रेय ज्ञान काई व्यक्तिगत सत्ता नहीं; वह एक शाश्वत चेतनता है, या चिन्मयी ज्ञान-धारा है, जो व्यक्तिगत स्थानीय केन्द्रों के नष्ट हो जाने पर भी निर्विशेष रूप से विद्यमान रहती है। प्रकाश की किरणों के समान भिन्नभिन्न संस्कृतियों के दर्पण में प्रतिफलित हो कर वह आलोक को सुन्दर और ऊर्जस्वित बनाती है।

ज्ञान की जिस मनन-धारा का विकास पिछले काल में परम्परागत तर्कों के द्वारा एक दूसरे रूप में दिखाई देता है उसे हेतु विद्या कहते हैं; किन्तु वैदिक साहित्य के स्वरूप में उषा सूक्त और नारदीय सूक्त इत्यादि तथा उपनिषदों में अधिकांश संकल्पात्मक प्रेरणाओं की अभिव्यक्ति हैं। इसीलिए कहा है—तम्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।