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कला को भारतीय दृष्टि में उपविद्या मानने का जो प्रसंग आता है उससे यह प्रकट होता है कि यह विज्ञान से अधिक सम्बन्ध रखती है। उसकी रेखाएँ निश्चित सिद्धान्त तक पहुँचा देती हैं। संभवतः इसीलिए काव्य-समस्या-पूरण इत्यादि भी छन्दशास्त्र और पिङ्गल के नियमों के द्वारा बनने के कारण उपविद्या कला के अन्तर्गत माना गया है। छंदशास्त्र काव्योपजीवी कला का शास्त्र है। इसलिए यह भी विज्ञान का अथवा शास्त्रीय विषय है। वास्तुनिर्माण, मूर्त्ति और चित्र शास्त्रीय दृष्टि से शिल्प कहे जाते हैं और इन सब की विशेषता भिन्न-भिन्न होने पर भी, ये सब एक ही वर्ग की वस्तु हैं।

भवन्ति शिल्पिनो लोके चतुर्धा स्व स्व कर्मभिः स्थपतिःसूवयाही च वर्धकिस्तक्षकस्तथा। (सयमतम् ५ अध्याय।) चित्र के सम्बन्ध में भी चित्राभासमिति ख्यात पूर्वैः शिल्प विशारदैः (शिल्परत्न अध्याय ३६)। इस तरह वास्तुनिर्माण, मूर्त्ति और चित्र शिल्पशास्त्र के अन्तर्गत हैं।

काव्य के प्राचीन आलोचक दण्डि ने कला के सम्बन्ध में लिखा है—नृत्यगीतमभृतयः कलाकामार्थ संश्रयाः (३-१६२) नृत्य गीत आदि कलाएँ कामाश्रय कलाएँ हैं। और इन कलाओं की संख्या भी वे ६४ बताते हैं, जैसा कि कामशास्त्र या तन्त्रों में कहा गया है। इत्थं कला चतुःषष्ठि विरोधः साधु नीयताम् (३-१७१)। काव्यादर्श में दण्डि ने फलाशास्त्र के माने हुए सिद्धांतों में