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प्रमाद न करने के लिए कहा है; अर्थात्—काव्य में यदि इन कलाओं का कोई उल्लेख हो तो उसी कला के मतानुसार। इससे प्रकट हो जाता है कि काव्य और कला भिन्न वर्ग की वस्तु हैं। नतज्ज्ञानं नतच्छिल्पम् न सा विद्या न सा कला ११७ (१ अध्याय भारत नाट्य) की व्याख्या करते हुए अभिनव गुप्त कहते हैं—कला गीत वाद्यादिका। इसी से गाने बजाने वालों को अब भी कलावन्त कहते हैं।

भामह ने भी जहाँ काव्य का विषय सम्बन्धी विभाग किया है वहाँ वस्तु के चार भेद माने हैं—देव-चरित शंसि, उत्पाद्य, कलाश्रय और शास्त्राश्रय। यहाँ भामह का तात्पर्य है कि कला सम्बन्धी विषयों को ले कर भी काव्य का विस्तार होता है। काव्य का एक विषय कला भी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कला का वर्गीकरण हमारे यहाँ भिन्न रूप से हुआ है।

कलाओं में संगीत को लोग उत्तम मानते हैं क्योंकि इस में आनन्दांश वा तल्लीनता की मात्रा अधिक है; किन्तु है यह शुद्ध ध्वन्यात्मक। अनुभूति का ही वाङ्मय अस्फुट रूप है। इसीलिए इसका उपयोग काव्य के वाहन रूप में किया जाता है, जो काव्य की दृष्टि से उपयोगी और आकर्षक है।

संगीत के द्वारा मनोभावों की अभिव्यक्ति केवल ध्वन्यात्मक होती है। वाणी का सम्भवतः वह आरम्भिक स्वरूप है। वाणी के चार भेद प्राचीन ऋषियों ने माने हैं। चत्वारि वापरिमिता पदानि