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हानि विदुर्प्राह्मण ये मनीषिणः। गुहात्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति, नुरीया वाचं मनुष्य वदन्ति (ऋग्वेद) वाणी के ये चार भेद आगे चल कर स्पष्ट किये गये, और क्रमशः इनका नाम परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी आगमशास्त्रों में मिलता है। परा, पश्यन्ती और मध्यमा गुहा निहित हैं। बैखरी वाणी मनुष्य बोलते हैं। शास्त्रों में परा वाणी को नाद रूपा शुद्ध अहं परामर्श मयी शक्ति माना है। पश्यन्ती वाच्य और वाचक के अस्फुट विभाग, चैतन्य प्रधान, द्रष्टा रूपवाली है। मध्यमा वाच्य और वाचक का विभाग होने पर भी बुद्धि प्रधान दर्शन स्वरूपा द्रष्टा और दृश्य के अन्तराल में रहती है। वैख़री स्थानकरण और प्रयत्न के बल से स्पष्ट हो कर वर्ण की उच्चारण शैली को ग्रहण करनेवाली दृश्य प्रधान होती है।

वृहदारण्यक् में कहा है—यद्किंञ्चाविज्ञातं प्राणस्य तद्रूपं प्राणीत्य-विज्ञातः प्राण एनं तद्भूत्वाऽवति। प्राण शक्ति सम्पूर्ण अज्ञान वस्तु को अधिकृत करती है। वह अविज्ञात रहस्य हैं। इसीलिए उसका नित्य नूतन रूप दिखाई पड़ता है। फिर यत्र किञ्च विज्ञातं वाचस्तद्रूपं वाग्धि विशाता वागेनं तद्भूत्वाऽवति, जो कुछ जाना जा सका वही वाणी है; वाणी उसका स्वरूप धारण कर के, उस ज्ञान की रक्षा करती है।

ज्ञान सम्बन्धी करणों का विवेचन करने में भारतीय पद्धति ने परीक्षात्मक प्रयोग किया है। स्वप्रमितिक के ज्ञान के लिए पाँच