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काव्य को इन आरम्भिक तीन भागों में विभक्त कर लेने पर उसकी आध्यात्मिक या मौलिक सत्ता का हम स्पष्ट आभास पा जाते हैं, और यही वाणी―जैसा कि हम ऊपर कहू आये हैं―आत्मानुभूति की मौलिक अभिव्यक्ति है।

वाणी के द्वारा अनुभूतियों को व्यक्त करने के बाद एक अन्य प्रकार का भी प्रयत्न आरम्भ होता है। दूर रहनेवाले, चाहे यह देशकाल के कारण से ही हो, केवल व्यष्टि का आश्रय लेनेवाली उच्चारणात्मक वाणी का आनन्द नहीं ले सकते। इसलिए वह व्यक्ति द्वारा प्रकट हुई आत्मानुभूति सामूहिक या समष्टि भाव से विस्तार करने का प्रयत्न करती है। और तब चित्र, लिपि, लक्षण इत्यादि सम्बन्धी अपनी बाह्य सत्ता को बनाती है।

ऊपर कहा जा चुका है कि कला को भारतीय दृष्टि में उपविद्या माना गया है। आगमों के अनुशीलन से, कला को अन्य रूप से भी बताया जा सकता है। शैवागमों में ३६ तत्व माने गये हैं, उनमें कला भी एक तत्व है। ईश्वर की कर्तृत्व, सर्वज्ञत्व, पूर्णत्व, नित्यत्व और व्यापकत्व शक्ति के स्वरूप कला, विद्या, राग, नियति और काल माने जाते हैं। शक्ति संकोच के कारण जो इन्द्रिय-द्वार से शक्ति का प्रसार एवं आकुंचन होता है, इन व्यापक शक्तियों का वही संकुचित रूप बोध के लिए है। कला संकुचित कर्तृत्व शक्ति कही जाती है। भोजराज ने भी अपने तत्व-प्रकाश में कहा है—व्यञ्जयति कर्तुशक्ति कलेति तेनेह कथिता सा।