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शिव-सूत्र-विमर्शिनी में क्षेमराज ने कला के सम्बन्ध में अपना विचार यों व्यक्त किया है―

कलयति स्व स्वरुपा वेशेन तत्तद् वस्तू परिच्छिनत्ति इति कला व्यापारः। इस पर टिप्पणी है :―

कलयति, स्वरूपं आवेशयति, वस्तुनि वा तत्र-तत्र प्रभातरि कलनमेव कला अर्थात्―नव-नव स्वरूप प्रथोल्लेख शालिनी संवित् वस्तुओं में या प्रमाता में स्व को, आत्मा को परिमित रूप में प्रकट करती है, इसी क्रम का नाम कला है।

स्व को कलन करने का उपयोग, आत्म-अनुभूति की व्यंजन में प्रतिभा के द्वारा तीन प्रकार से किया जाता है—अनुकूल, प्रतिकूल और अद्भुत। ये तीन प्रकार के प्रतीक विधान काव्यजगत् में दिखाई पड़ते हैं। अनुकूल, अर्थात् ऐसा हो। यह आत्मा के विज्ञात अंश का गुणनफल है। प्रतिकूल, अर्थात् ऐसा नहीं। यह आत्मा के अविज्ञात अंश की सत्ता का ज्ञान न होने के कारण हृदय के समीप नहीं। अद्भुत―आत्मा का विजिज्ञास्य रूप, जिसे हम पूरी तरह समझ नहीं सके हैं, कि वह अनुकूल है या प्रतिकूल। इन तीन प्रकार के प्रतीक विधानों में आदर्शवाद, यथातथ्यवाद और व्यक्तिवाद इत्यादि साहित्यिक वादों के मूल सन्निहित हैं जिसकी विस्तृत आलोचना की यहाँ आवश्यकता नहीं। कला को तो शास्त्रों में उपविद्या माना है। फिर उस का साहित्य में या आत्मानुभूति में कैसा विशेष अस्तित्व है, इस प्रश्न