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जाता है। इसलिए वे इस बात को स्वीकार करने में डरते हैं कि जीवन में यथार्थ वस्तु आनन्द है, ज्ञान से वा अज्ञान से मनुष्य उसी की खोज में लगा है। आदर्शवाद ने विवेक के नाम पर आनन्द और उस के पथ के लिए जो जनरव फैलाया है, वही उसे अपनी वस्तु कह कर स्वीकार करने में बाधक है। किन्तु प्राचीन आर्य लोग सदैव से अपने क्रियाकलाप में आनन्द, उल्लास और प्रमोद के उपासक रहे; और आज के भी अन्यदेशीय तरुण आर्यसंघ आनन्द के मूल संस्कार से संस्कृत और दीक्षित हैं। आनन्दभावना, प्रियकल्पना और प्रमोद हमारी व्यवहार्य वस्तु थी। आज की जातिगत निर्वीर्यता के कारण उसे ग्रहण न कर सकने पर, यह सेमेटिक है कह कर सन्तोष कर लिया जाता है।

कदाचित् इन आलोचकों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि आरम्भिक वैदिक काल में प्रकृतिपूजा अथवा बहुदेव-उपासना के युग में ही, जब एवं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति के अनुसार एकेश्वरवाद विकसित हो रहा था, तभी आत्मवाद की प्रतिष्ठा भी पल्लवित हुई। इन दोनों धाराओं के दो प्रतीक थे। एकेश्वरवाद के वरुण और आत्मवाद के इन्द्र प्रतिनिधि माने गये। वरुण न्यायपति राजा और विवेकपक्ष के आदर्श थे। महावीर इन्द्र आत्मवाद और आनन्द के प्रचारक थे। वरुण को देवताओं के अधिपति पद से हटना पड़ा, इन्द्र के आत्मवादकी प्रेरणा ने आर्यों में आनन्द की विचारधारा उत्पन्न की। फिर तो इन्द्र ही देबराज पद पर प्रतिष्ठित