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हुए। वैदिक साहित्य में आत्मवाद के प्रचारक इन्द्र की जैसी चर्चा है, उर्वशी आदि अप्सराओं का जो प्रसङ्ग है, वह उन के आनन्द के अनुकूल ही है। बाहरी याज्ञिक क्रियाकलापों के रहते हुए भी वैदिक आर्यों के हृदय में आत्मवाद और एकेश्वरवाद की दोनों दार्शनिक विचारधाराएँ अपनी उपयोगितामें सङ्घर्ष करने लगीं। सप्तसिन्धु के प्रबुद्ध तरुण आर्यों ने इस आनन्द वाली धारा का अधिक स्वागत किया। क्योंकि वे स्वत्व के उपासक थे। और वरुण यद्यपि आर्यों की उपासना में गौण रूप से सम्मिलित थे, तथापि उन की प्रतिष्ठा असुर के रूप में असीरिया आदि अन्य देशों में हुई। आत्मा में आनन्द भोग का भारतीय आर्यों ने अधिक आदर किया। इधर असुर के अनुयायी आर्य एकेश्वरवाद और विवेक के प्रतिष्ठापक हुए। भारत के आर्यों ने कर्मकाण्ड और बड़े-बड़े यज्ञों में उल्लास-पूर्ण आनन्द का ही दृश्य देखना आरम्भ किया और आत्मवाद के प्रतिष्ठापक इन्द्र के उद्देश्य से बड़े-बड़े यज्ञों की कल्पनाएँ हुईं। किन्तु इस आत्मवाद और यज्ञ वाली विचारधारा की वैदिक आर्यों में प्रधानता हो जाने पर भी, कुछ आर्य लोग अपने को उस आर्य सङ्घ में दीक्षित नहीं कर सके। वे व्रात्य कहे जाने लगे। वैदिक धर्म की प्रधान धारा में, जिस के अन्तर में आत्मवाद था और बाहर याज्ञिक क्रियाओं का उल्लास था, व्रात्यों के लिए स्थान नहीं रहा। उन व्रात्यों ने अत्यन्त प्राचीन अपनी चैत्यपूजा आदि के रूप में उपासना का क्रम प्रचलित रक्खा और दार्शनिक दृष्टि से उन्हों ने विवेक के