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वादी, आत्मवाद में आस्था न रखनेवाले तथा बाह्य उपासना में चैत्यपूजक थे। दुःखवाद जिस मननशैली का फल था वह बुद्धि या विवेक के आधार पर, तर्कों के आश्रय में बढ़ती ही रही। अनात्मवाद की प्रतिक्रिया होनी ही चाहिए। फलतः पिछले काल में भारत के दार्शनिक अनात्मवादी ही भक्तिवादी बने और बुद्धिवाद का विकास भक्ति के रूप में हुआ। जिन जिन लोगों में आत्मविश्वास नहीं था उन्हें एक त्राणकारी की आवश्यकता हुई। प्रणति वाली शरण खोजने की कामना—बुद्धिवाद की एक धारा—प्राचीन एकेश्वरवाद के आधार पर ईश्वरभक्ति के स्वरूप में बढ़ी और इन लोगों ने अपने लिए अवलम्ब खोजने में नये-नये देवताओं और शक्तियों की उपासना प्रचलित की। हाँ, आनन्दवाद वाली मुख्य अद्वैतधारा में भक्ति का विकास एक दूसरे ही रूप में हो चुका था, जिस के सम्बन्ध में आगे चल कर कहा जायगा।

ऊपर कहा जा चुका है कि वैदिक साहित्य की प्रधान धारा में उस की याज्ञिक क्रियाओं की आत्मपरक व्याख्याएँ होने लगी थीं और व्रात्य दर्शनों की प्रचुरता के युग में भी आनन्द का सिद्धान्त संहिता के बाद श्रुतिपरम्परा में आरण्यक स्वाध्यायमण्डलों में प्रचलित रहा। तैत्तिरीय में एक कथा है कि भृगु जब अपने पिता अथवा गुरु वरुण के पास आत्म उपदेश के लिए गये तो उन्हों ने बार-बार तप करने की ही शिक्षा दी और बार-बार तप कर के भी भृगु सन्तुष्ट न हुए और फिर आनन्दसिद्धान्त की उपलब्धि कर के