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लोगों ने भी बुद्धिवाद का अपने लिए उपयोग किया था; किन्तु उसे वे अविद्या कहते थे, क्योंकि वह कर्म और विज्ञान की उन्नति करती है और नानात्व को बताती है। मुख्यतः तो वे अद्वैत और आनन्द के ही उपासक रहे। विज्ञानमय याज्ञिक क्रियाकलापों से वे ऊपर उठ चुके थे। कठ, पाञ्चाल, काशी और कोशल में तो उन की परिषदें थीं ही, किन्तु मगध की पूर्वीय सीमा पर भी उस के दुःख और अनात्मवादी राष्ट्रों के एक छोर पर विदेहों की बस्ती थी, जो सम्पूर्ण अद्वैतवादी थे। ब्राह्मण ग्रन्थ में सदानीरा के उस पार यज्ञ की अग्नि न जाने की जो कथा है उस का रहस्य इन्हीं मगध के व्रात्य संघों से सम्बन्ध रखता था। किन्तु माधव विदेह ने सदानीरा के पार अपने मुख में जिस अग्नि को ले जा कर स्थापित किया था वह विदेहों का प्राचीन आत्मवाद ही था। इन परिषदों में और स्वाध्यायमण्डलों में वैदिक मन्त्रकाल के उत्तराविकारी ऋषियों ने संकल्पात्मक ढंग से विचार किया, सिद्धान्त बनाये और साधना पद्धति भी स्थिर की। उन के सामने ये सब प्रश्न आये―

केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क व देवो युनक्ति॥

(केनोपनिषद्)


किं कारण ब्रह्म कुतः स्म जाता
जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठाः।