पृष्ठ:काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध.pdf/८

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प्रसाद जी हिन्दी ही नहीं, समस्त भारतीय साहित्य की उत्कृष्टतम विभूतियों में थे, यह बात कम से कम हिन्दी के पाठकों से तो नहीं छिपी है। वह जैसे उच्चकोटि के कलाकार थे, वैसे ही प्राचीन भारतीय साहित्य तथा आर्य संस्कृति के प्रकाण्ड तथा मर्मज्ञ ज्ञाता थे। और इससे भी बड़ी बात यह है कि उनमें वह सच्ची सहानुभूति थी जिसके द्वारा मनुष्य सब प्रकार के भेदभाव को भूल कर अपने मानव बन्धुओं की भावनाओं को आत्मसात करके उनके सुख-दुःख की वास्तविक अनुभूति कर सकता है और जिसके बिना कोई कवियशःप्रार्थी व्यक्ति अमर कलाकार तो क्या महान साहित्यिक के पद का भी अधिकारी नहीं हो सकता। और अपनी इस अद्‌भुत सृजन-शक्ति, असाधारण ज्ञान-राशि तथा उदार सहानुभूति का उन्होंने जीवन भर हिन्दी साहित्य के भण्डार की रिक्तता को कम करने तथा उसे सर्वांगीण से भरा-पूरा बनाने में ही सदुपयोग किया। हमारे जिन मनस्वियों ने हिन्दी साहित्य को इस योग्य बनाने में सहयोग प्रदान किया है कि वह अन्य भारतीय साहित्यों के बीच अपना मस्तक गर्व के साथ और बिना संकोच के ऊँचा उठा सके, उनमें प्रसादजी का बड़ा ऊँचा स्थान है। उन्होंने हिन्दी को क्या नहीं दिया? गीति काव्य, महाकाव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी और निबन्ध, आदि, हिन्दी साहित्य के सभी विभागों में उनका कलात्मक सदुद्योग दिखाई दे रहा है और उनकी कीर्ति-पताका फहरा रही है। हिन्दी संसार उनका ऋणी है और रहेगा, क्योंकि अपनी कृतियों से अपने लिए अमर कलाकारों में स्थान प्राप्त करने के साथ ही वे हिन्दी का भी मुख उज्जवल कर गए हैं। हिन्दी का साहित्याकाश