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आगम के टीकाकारों ने भी इस अद्वैत आनन्द को अच्छी तरह पल्लवित किया―

विगलित भेदसंस्कारमानन्दरसप्रवाहमयमेव पश्यति।

(क्षेमराज)

हाँ, इन सिद्धों ने आनन्दरस की साधना में और विचारों में प्रकारान्तर भी उपस्थित किया। अद्वैत को समझने के लिए―

आत्मैवेदमय आसात्......स वै नैव रेमे। तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीयमैच्छत् स हैतावानास यथा स्त्रीपुमाँ सो सम्परिश्वक्तौ स इममेवात्मानंद्विधापातयत्।

इत्यादि बृहदारण्यक श्रुति का अनुकरण कर के समता के आधार पर भक्ति की और मित्र प्रणय की सी मधुर कल्पना भी की। क्षेमराज ने एक प्राचीन उद्धरण दिया―

जाते समरसानन्दे द्वैतमप्यमृतोपमम्।
मित्रयोरिव दम्पत्योर्जीवात्मपरमात्मनोः॥

यह भक्ति का आरम्भिक स्वरूप आगमों में अद्वैत की भूमिका पर ही सुगठित हुआ। उन की कल्पना निराली थी―

समाधिव्रेणाप्यन्यैरभेद्यो भेदभूधरः‌।
परामृष्टश्च नष्टश्च त्वद्भक्तिबलशालिभिः॥

यह भक्ति भेदभाव, द्वैत, जीवात्मा और परमात्मा की भिन्नता को नष्ट करनेवाली थी। ऐसी ही भक्ति के लिए माहेश्वराचार्य अभिनवगुप्त के गुरु उत्पल ने कहा है―

भक्तिलक्ष्मीसमृद्धानां किमन्यदुपयाचितम्।