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अद्वैतमूला भक्ति रहस्यवादियों में निरन्तर प्राञ्जल होती गयी। इस दार्शनिक सत्य को व्यावहारिक रूप देने में किसी विशेष अनाचार की आवश्यकता न थी। संसार को मिथ्या मान कर असम्भव कल्पना के पीछे भटकना नहीं पड़ता था। दुःखवाद से उत्पन्न संन्यास और संसार से विराग की आवश्यकता न थी। अद्वैत मूलक रहस्यवाद के व्यावहारिक रूप में विश्व को आत्मा का अभिन्न अंग शैवागमों में मान लिया गया था। फिर तो सहज आनन्द की कल्पना भी इन लोगों ने की। श्रुति इसी कोटि के साधकों के लिए पहले ही कह चुकी थी―

या बुद्धयते सा दीक्षा यदश्नाति तद्धवि यत्पिबति तदस्य सोमपानं यद्रमते तदुपसदो...

इसी का अनुकरण है―

आत्मा स्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणः शरीरं गृहं
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः।

(शाङ्करी मानसपूजा)

सौन्दर्यलहरी भी उसी स्वर में कहती है―

सपर्यापर्यायस्तव भवत् यन्मे विलसितम्। (२७)

इन साधकों में जगत् और अन्तरात्मा की व्यावहारिक अद्वयता में आनन्द की सहज भावना विकसित हुई। वे कहते हैं―

त्वमेव स्वात्मानं परिणमयितुं विश्ववपुषा।
चिदानन्दाकारं शिवयुवति भावेन विभृषे॥

(सौन्दर्यलहरी ३५)