किसी काश्मीरी भक्त कवि ने कहा है—
तत्तदिन्द्रियमुखेन सन्ततं युष्मदर्चनरसायनासवम्।
सर्वभावचषकेषु पूरितेष्वापिवन्निव भवेयमुन्मदः॥
इस में इन्द्रियों के मुख से अर्चन-रस का आसव पीने की जो कल्पना है वह आनन्द की सहज भावना से ओतप्रोत है।
आगमानुयायी स्पन्दशास्त्र के अनुसार प्रत्येक भावना में, प्रत्येक अवस्था में वह आत्मानन्द प्रतिष्ठित है―
अतिक्रुद्धः प्रहृष्टो वा किं करोति परामृशन्।
धावन् वा यत्पदं गच्छेत्तत्र स्पन्दः प्रतिष्ठितः॥
और उनकी अद्वैत साधना के अनुसार सब विषयों में―इन्द्रियों के अर्थों में निरूपण करने पर कहीं भी अशिव, अमङ्गल, निरानन्द नहीं―
विषयेषु च सर्वेषु इन्द्रियार्थेषु व स्थितम्।
यत्र यत्र निरूप्येत नाशिवं विद्यते क्वचित्॥
जिस मन को बुद्धिवादी मना दुर्निग्रहं चलम् समझ कर ब्रह्म पथ में विमूढ़ हो जाते हैं उसके लिए आनन्द के उपासकों के पास सरल उपाय था। वे कहते हैं―
यत्र यत्र मनो याति ज्ञेयं तत्रैव चिन्तयेत्।
चलित्वा यास्यते कुत्र सर्व शिवमयं यतः॥
मन चल कर जायगा कहाँ? बाहर-भीतर आनन्दघन शिव के अतिरिक्त दूसरा स्थान कौन है?